शनिवार, 20 अगस्त 2016

असहमति नहीं, सहमति भी नहीं! सुमति!

विद्यापति ने सहज सुमति का वरदान मांगा। कबीर ने सहज होने के महत्व को समझा। तुलसी ने सुमति को संपत्ति (विपत्ति मुक्ति) की शर्त बताया। आधुनिक बोध ने साथ होने के लिए सुमति को नहीं सहमति को शर्त बना लिया। आधुनिक बोध ने सहज से परहेज करते हुए भूला दिया कि असहमति में भी सुमति हो सकती है और सहमति में भी कुमति हो सकती है। हम भूल गये कि जीवन के सद्भाव के लिए सहमति-असहमति से अधिक जरूरी है सुमति! अब सुमति को कैसे बुलाऊँ? सुमति तो जीवन संसद की संन्यास से बाहर होकर तीर्थाटन पर निकल गई है।

सोमवार, 27 जून 2016

सब कुछ तो अब सियासी खिदमत में है

सब कुछ
अब पावर स्फीयर में है
एक कराह
बस पब्लिक स्फीयर में है
मुक्कमल इंसानी जिंदगी बस ख्वाहिश में है
कुछ-न-कुछ गड़बड़ी
इंसानी परवरिश में है
सियासत के हवाले
अदब भी अदाबत भी और
कोहराम अदालत में है
स्याह है बहुत सियासी खिदमत और जज्वात के गलियारों का
रोशनदान भी जहमत में है
आवाम की नजरों से
ये बात भी ओझल
किस सूरत-ए-हाल में
वक्त का शायर सिर पीटता है
लिखता नहीं
बस कलम घसीटता है
तालियाँ जितनी बजे
हिफाजत में उसके
हाथ कोई उठता नहीं है
ऐसे में वह जो वक्त का हरकारा
जाने जी रहा किस हिकारत में है
सब कुछ तो सियासी खिदमत में है

रविवार, 10 जनवरी 2016

अनामिका की कविता

अनामिका की कविताओं में स्त्री जीवन और मन के अद्भुत रचाव का अपना मिजाज ध्यान खींचता है। अद्भुत इसलिए की स्त्री जीवन और मन के अंतःकरण के जो प्रसंग उनकी कविताओं में प्रकट होते हैं वे कविता की संरचना के बाहर किसी भी भाषिक संरचना में प्रकट नहीं हो सकते। विवाह संस्था और पितृसत्ता की परिवार व्यवस्था का गहरा और दर्दिला संबंध स्त्री जीवन से रहा है। विवाह संस्था और स्त्री पदार्थ का द्वंद्वात्मक प्रश्न किसी न किसी रूप सभ्यताओं के आसपास मंडराता रहा है। अनब्याही औरतें, इस संदर्भ को न सिर्फ मीरा काव्य के सामाजिक संदर्भ से जोड़ती है बल्कि, इस के व्याज से आज की कामकाजी महिलाओं की मानसिकता के द्वंद्व को भी बहुत ही करीने से उभार कर रख देती है। इस द्वंद से ऐसी व्यथा जनमती है जो माँ को संबोधित होकर भी उस के समक्ष अभिव्यक्त होने से ठिठक जाती है। इस ठिठकन का संबंध विवाह संस्था और पितृ व्यवस्था के द्वारा माँ नाम की स्त्री सत्ता के अनुकूलन से अनिवार्यतः जुड़ा हुआ लगता है। इसे समझने और महसूस करने की स्त्री क्षमता का पुंसकोड से भरी भाषा की कविता में निर्विकल्पतः उतरना इस कविता को महत्वपूर्ण बना जाता है। "माई री मैं कासे कहूँ पीर अपने जिया की, माई री!" और इस तरह कविता अपनी महत्वपूर्णता में हासिल करती है, साहस भी और सद्भावना भी!

प्रथम स्राव की झंकृति अनहद-सी बजती हुई काँपती लड़की को महीयसी मुद्रा में ला खड़ी करती है। कहना न होगा अनहद में कबीर का नाद है। उस कबीर का नाद जो प्रेम में उन्मत्त होकर खुद दुल्हिन का मंगलचार गाने लगता है। याद है ना सखी संप्रदाय का सांस्कृतिक प्रसंग की !

चौकों के सारे बर्तनों के धुल चुकने के बाद और आखिरी चूल्हे की आग ही नहीं राख के भी बुझ चुकने के बाद अपने वजूद की आंच के आगे खुद को ही सानती और
खुद को ही गूंधती हुई
ख़ुश होकर पृथ्वी की तरह रोटी बेलती है स्त्री। कविता के, स्त्री के, पृथ्वी के इस तरह से खुश होने या खुश हो जाने में ही इस सभ्यता के सातत्य का रहस्य है।
सच कहूँ तो, पुंसकोड से भरी भाषा में इन कविताओं की संवेदना को ठीक-ठीक समझना और सामाजिक करना बहुत आसान नहीं है, कम-से-कम मेरे लिए। खैर बाकी दोस्त लोग सम्हाल लेंगे।

शुक्रवार, 11 दिसंबर 2015

मेरे अंदर

ओ मेरी जाँ नहीं मैं जिंदा हूँ तेरे अंदर
चाँद को पता है जानता है समंदर

पूछो चाँद से देखो क्या कहता है समंदर
घुमड़ता है जुल्फों में जो आँसू का समंदर

सुमन कहो फूल कहो गुल खिलता है मेरे अंदर
एक और जिंदगी है साँसों में साँसों के अंदर

नाचती है मुकम्मल महबूब की तस्वीर पुतलियों के अंदर
और दुनिया खोजती है जख्मों के निशान मेरे अंदर

चोट जब तेरे दिल को लगती  निशान उभरता है मेरे अंदर
मत पूछ क्या उठाती गिराती है तेरी खामोशियाँ मेरे अंदर

नजरशनाशी की सलाहियत बिफरती है सुबह शाम मेरे अंदर
लियाकत शिकायती खतों का बंडल रोज डालती है मेरे अंदर

छुप छुपा कर देखो कि खाली पाँव कैसे घुसता हूँ तेरे अंदर
है हुनर को सलाम हँसता हूँ बाहर जो रोता हूँ घर के अंदर

घर मुस्कुराने की जगह नहीं जो घर नहीं कोई घर के अंदर
है मेरी महबूब की क्या खूब पनाह निगाही मुकम्मल मेरे अंदर

गुरुवार, 22 अक्टूबर 2015

ऐ जिंदगी! रहने दे अभी

जीवन, हाँ जीवन। कैसी विडंबना है! पुराने चित्र में नया दिखता हूँ। नये चित्र में पुराना दिखता हूँ। विडंबना यह कि नये पुराने के बीच दिमाग पेंडुलम की तरह डोलता रहता है। यह तो दिल ही जानता है कि न नया हूँ और न पुराना। मुश्किल यह कि दिमागदारों की दुनिया में दिल की सुनता ही नहीं कोई! विवेक भी आजकल दिमाग से ही अधिक बतियाता है, कहता है रहना इसी दुनिया में है। एक बीरानी-सी हवा दिल के मार्फत लहू पर सवार दिमाग को झकझोरती रहती है। ऐ जिंदगी! रहने दे अभी.....

बुधवार, 12 अगस्त 2015

अच्छा लगता है

तेरी खामोशी भी अच्छी लगती है तेरा बोलना भी अच्छा लगता है 
खामोशी और बोलने के बीच में आँखों का मुस्कुराना अच्छा लगता है

बहुत दुखी और पराजित महसूस कर रहा हूँ

इस देश की ही बात कहता हूँ। दुनिया की बात, क्या कहूँ! मेरा यह मत बनता जा रहा है कि इस देश से सांप्रदायिकता को निर्मूल करना असंभव है। अभी, दो दिन पहले एक प्रखर बौद्धिक, संवेदनशील मनुष्य और समतामूलक समाज के स्वप्नदर्शी अपने अग्रज मित्र से बात हो रही थी। बातचीत के प्रवाह में उन्होंने एक बात कही, वह बात संकेतपूर्ण है। मित्र का नाम बड़ा है, लेकिन यहाँ बताना उचित नहीं है। नाम बताने की पहली बाधा यह है कि यह नितांत व्यक्तिगत बातचीत फोन पर हो रही थी और दूसरा यह डर है कि नाम बताने से इस बात की संवेदना व्यक्ति के आस पास सिमटकर रह जायेगी। उन्होंने कहा, ‘और चाहे जो हो, ब्राह्मणों पर कोई यकीन नहीं किया जा सकता’। यह एक ऐसी बात है, जो पूरी तरह से सांप्रदायिक मनोभाव के हमारे सर्वाधिक विवेक-संपन्न मन भी में चिर-स्थाई रूप से समाये रहने की पुष्टि करती है। उनके जैसे विवेक-संपन्न और प्रबुद्ध मित्र के भी मन में इस तरह के मनोभाव के टिके रहने की मुझे उम्मीद नहीं थी। फिर क्या फर्क रहता है जब कोई गैर-मुस्लिम कहे, ‘और चाहे जो हो, मुस्लमानों पर कोई यकीन नहीं किया जा सकता’ या कोई गैर-हिंदु कहे, ‘और चाहे जो हो, हिंदुओं पर कोई यकीन नहीं किया जा सकता’ या कोई गैर-बिहारी कहे, ‘और चाहे जो हो, बिहारियों पर कोई यकीन नहीं किया जा सकता’ या कोई गैर-दलित कहे, ‘और चाहे जो हो, दलितों पर कोई यकीन नहीं किया जा सकता’ आदि, इसी तरह से लिंग-क्षेत्र आदि के संदर्भ भी समझे जा सकते हैं। इसे जितना बढ़ाया जाये स्थिति उतनी ही भयावह प्रतीत होगी। यहाँ, कहने का मकसद सिर्फ यह है कि हमारे सामने बहुत बड़ी चुनौती है। एक गहरे अर्थ में खुद को फिर से पहचानने की जरूरत है। इस पर बहस करना यहाँ मेरा मकसद नहीं, यहाँ तो सिर्फ मन का मरोड़ आपके सामने रखने का मकसद है दोस्तो! कहीं ऐसा तो नहीं कि जन्मना ब्राह्मण जाति के होने के कारण मुझे यह बात कुछ अधिक बड़ी लग रही हो? ऐसा हो सकता है, यह असंभव नहीं है। क्या सचमुच, इस देश से सांप्रदायिकता को निर्मूल करना असंभव है?