लेबल: लोक व्यवहार
बहुत सारे लोग मानते हैं कि वे साम्यवादी नहीं हैं। कुछ लोग साम्यवादी होने को घृणा की नजर से भी देखते हों, तो कोई अचरज नहीं! घृणा और प्रेम सबसे अधिक की जाने मानसिक चर्या और सबसे कम समझा जानेवाला मानव प्रसंग है।
तो क्या ऐसे लोग सचमुच साम्यवादी नहीं होते हैं! नहीं। सही बात तो यह है कि साम्यवादी हुए बिना मनुष्य जी नहीं सकता। साम्यवाद एक ऐसी व्यवस्था को साकार करने का स्वप्न है जिसमें प्रत्येक से उसकी योग्यता के अनुसार लिये जाने तथा प्रत्येक को उसकी जरूरत के अनुसार दिये जाने की अधिकतम संभावना हो। यानी, योग्यता के अनुसार दो, जरूरत के अनुसार लो! योग्यता के अनुसार देने, जरूरत के अनुसार पाने के हक की व्यवस्था को नकारकर कोई परिवार टिक ही नहीं सकता है! वृहत्तर परिवार बोध के कारण भी उत्सव सामाजिक और मानवीय आकांक्षा के रूप में महत्त्वपूर्ण होते हैं। उत्सवों के इस मौसम में हमें बाजार के कोलाहल से कान बचाकर इस धीमे, बहुत ही धीमे स्वर को भी सुनने की कोशिश करनी चाहिए कि साम्यवादी आचरण को त्याग कर लगातार टूटन की तरफ बढ़ते परिवार नाम की सामाजिक संस्था को बचाया नहीं जा सकता है! क्या हम पसंद करेंगे कि परिवार का जो सदस्य जितना कमाता है वह उतना आनंद भोग करे और जो कम कमाता है या बेरोजगार है वह बस टुकुर-टुकुर ताकता रहे! शायद नहीं! जिस बोध के बिना अपना परिवार खुश नहीं रह सकता उस बोध के अभाव में देश, दुनिया में खुशी कैसे आ सकती है। साम्यवाद का निषेध तो आत्म-निषेध है। हाँ, मैं जानता हूँ, साम्यवाद के रास्ते बहुत कठिन हैं लेकिन इसके निषेध से तो रास्ता बंद ही हो जाता है।
घृणा और प्रेम के बिना हम रह नहीं सकते और इसे जाने बिना हम अपने आँगन में खुशी की अल्पना रचने की कल्पना भी नहीं कर सकते। नहीं क्या! दिल पर रखकर हाथ कहिये!
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सादर, प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan