जो साहित्य के क्षेत्र में उतरने की तैयारी में हैं यह उनके लिए है

आधुनिक हिंदी समाज और साहित्य से पाठक दूर होते गये हैं। यह चिंता की बात है। इससे भी अधिक चिंता की बात यह है कि हिंदी साहित्य से वह वेदना ही अपने अधिकांश में विच्छिन्न हो गई, जो हिंदी साहित्य की प्रेरणा और प्राण का आधार थी। यह वेदना हिंदी साहित्य का प्राण इसलिए थी कि यह वेदना व्यापक हिंदी समाज की जीवन-स्थिति से जुड़ी थी। व्यापक हिंदी समाज से इसके जुड़ाव का कारण था कि हिंदी कवि-कथाकार की अपनी व्यक्तिगत जीवन-स्थिति और हिंदी समाज के आम लोगों की जीवन-स्थिति में बहुत का अंतर नहीं था। आज जिन्हें हम बड़ा साहित्यकार मानते हैं, मानते ही नहीं हैं, बल्कि वे हैं, वे सभी भयानक अभाव की जीवन-स्थिति में रहकर रचते रहे, अपने जन के जीवन से जुड़े रहे। बिस्तरा है न चारपाई, यह महज भाषा का लय संयोजन नहीं है, बल्कि जीवन के छंद में छल और लय में प्रलय के आने के विरुद्ध अपराजेय संघर्ष का सबूत है। त्रिलोचन की कविता है, खुद ही देखिये ▬▬ 
बिस्तरा है न चारपाई है
जिंदगी ख़ूब हमने पाई है


कल अँधेरे में जिसने सर काटा 
नाम मत लो वह हमारा भाई है 

गुल की ख़ातिर करे भी क्यों कोई
उस की तक़दीर में बुराई है

जो भी बुराई है अपने माथे है
उनके हाथों महज़ भलाई है
(गुलाब और बुलबुल में संकलित)

लेकिन यह स्थिति बदल रही थी। अपराजेय-सी दिखनेवाली संघर्ष की परंपरा में सुविधा के सामंजस्य का समावेश होने लग गया था। सुविधा और सामंजस्य की तलाश संघर्ष की प्रेरणा को असमंजस के भँवर में डाल देती है। मुक्तिबोध ने इसे लक्षित किया था। क्या कहा था! आप खुद ही देखिये ▬▬

‘आज के हमारे निम्न-मध्यवर्गीय लेखक लोग, अपने ही दरिद्र बंधु-बांधवों को तलाक देकर, उनके अपने वर्ग का त्याग करने के लिए उत्सुक रहते हैं। वे शीघ्रातिशीघ्र एरिस्ट्रोकेटिक पश्चिमीकृत संस्करण बनाना चाहते हैं। यह हाल, खास तौर से, बड़े शहरों के निम्न-मध्यवर्गीयों का है। वे अपनी आधार-भूमि को छोड़कर पराई आधार-भूमि पर स्थित होना चाहते हैं। उच्च-मध्यवर्गीयों की जीवन-प्रणाली के प्रति उनके अंत:करण में लोभ-लालसा जगी रहती है। आश्चर्य की बात है कि बहुतेरे ख्यातिप्राप्त प्रगतिशील, लेकिन एक जमाने के निम्न-मध्यवर्गीय, लेखकों ने भी वही एरिस्ट्रोक्रेटिक जिंदगी अपना ली है। उन्होंने अपने वर्ग का त्याग कर दिया है। इस अभिशाप से कोई बचा नहीं है। ऐसी हालत में, उनकी प्रगतिशील भाव-धारा, केवल देव-पूजा की भाँति, आघ्यात्मिक और कृत्रिम हो जाती है – भले ही वे अपनी शब्द-क्रीड़ाओं में प्रगतिशील भावनाओं का दीपक जगायें। उन्होंने अपने ही वर्ग की जनता का त्याग कर दिया है। यही कारण है कि उनकी प्रगतिशील भाव-धारा यांत्रिक है, कृत्रिम है, देव-पूजा के मंत्रों के समान है। उनके अपने साहित्य में निम्न-मध्यवर्ग का चित्रण होते हुए भी उसमें जान नहीं है।’ (मुक्तिबोध रचनावली 5 से) 

सच है, ‘गर्वीली गरीबी’ या गरीबी के गर्वीली होने का दौर कब का बीत चुका है। ऊपर से, आज के बाजारवाद और संस्कृति उद्योग की प्रबलता के दौर में बाजार के छल का जितना डर है, उससे कहीं ज्यादा डर अपने भीतर हिलोर मारती ‘बिक जाने’ की हसरत का है। यह ‘बिक जाने’ की कार्वाई इतनी महीन होती है कि खुद को पता ही नहीं चलता है कि हम किन अर्थों में कब बिक गये। आज के संभावनाशील महत्त्वाकांक्षी हिंदी लेखकों की सूची में उनकी आर्थिक स्थिति और जीवन-स्थिति के औसत तथा उनके सामाजिक साहचर्य का सर्वेक्षण करने पर यह सहज ही पता चल जायेगा कि हिंदी साहित्य में प्राण का स्पंद क्यों और कैसे कम होता गया है।

तो क्या करे हिंदी का लेखक बनने के लिए गरीबी का जानबूझकर वरण कर ले! नहीं इतनी बड़ी कुर्बानी की माँग कौन कर सकता है? तो फिर क्या करे! बस जरा नजर नीची कर ले, स्वीकार ले कि हम वह हैं नहीं, जैसा कि खुद को दिखते हैं। आनेवाले समय में अगर किसी को परखने की जरूरत होगी, अगर होगी तो, वह हमें बिके हुए पुरखों के रूप में याद करेगा। बिके हुए को अपने बिके होने का पता खुद नहीं होता है, जैसे सांप्रदायिक मनो-भाववाले लोगों को पता नहीं होता कि वह ठीक किन अर्थों में सांप्रदायिक है! कुछ कहो तो वे कहने लग जाते हैं कि कौन सांप्रदायिक नहीं है, हमें बताओ! जैसे शराबी का पहला सवाल यही होता है कि यहाँ कौन नशे में नहीं है? तो फिर हिंदी लेखक क्या करे! कुछ खास नहीं। अगर करना ही चाहे तो मुक्तिबोध की चेतावनी पर कान धरे और ‘अपनी आधार-भूमि को छोड़कर पराई आधार-भूमि पर स्थित’ होने की अपनी हसरत को रोज चेक कर ले। ‘अपने ही दरिद्र बंधु-बांधवों’ से यत्नपूर्वक सम्मान का संबंध कायम रख सके तो यही बड़ी बात होगी।

साहित्यकार होने की तमन्ना तो, किसी बड़ी प्रेरणा को प्रतिज्ञा के रूप स्वीकार करना है।

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सादर, प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan