जीवन, हाँ जीवन। कैसी विडंबना है! पुराने चित्र में नया दिखता हूँ। नये चित्र में पुराना दिखता हूँ। विडंबना यह कि नये पुराने के बीच दिमाग पेंडुलम की तरह डोलता रहता है। यह तो दिल ही जानता है कि न नया हूँ और न पुराना। मुश्किल यह कि दिमागदारों की दुनिया में दिल की सुनता ही नहीं कोई! विवेक भी आजकल दिमाग से ही अधिक बतियाता है, कहता है रहना इसी दुनिया में है। एक बीरानी-सी हवा दिल के मार्फत लहू पर सवार दिमाग को झकझोरती रहती है। ऐ जिंदगी! रहने दे अभी.....
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सादर, प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan