शनिवार, 20 अगस्त 2016

असहमति नहीं, सहमति भी नहीं! सुमति!

विद्यापति ने सहज सुमति का वरदान मांगा। कबीर ने सहज होने के महत्व को समझा। तुलसी ने सुमति को संपत्ति (विपत्ति मुक्ति) की शर्त बताया। आधुनिक बोध ने साथ होने के लिए सुमति को नहीं सहमति को शर्त बना लिया। आधुनिक बोध ने सहज से परहेज करते हुए भूला दिया कि असहमति में भी सुमति हो सकती है और सहमति में भी कुमति हो सकती है। हम भूल गये कि जीवन के सद्भाव के लिए सहमति-असहमति से अधिक जरूरी है सुमति! अब सुमति को कैसे बुलाऊँ? सुमति तो जीवन संसद की संन्यास से बाहर होकर तीर्थाटन पर निकल गई है।

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सादर, प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan