शुक्रवार, 12 सितंबर 2014

हिंदी मेलाः सपनों और संभावनाओं का एक सिलसिला

हिंदी मेला का यह दसवाँ साल है। साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में काम करनेवाले लोगों में आरंभ का उत्साह बहुत होता है। कठिन होता है, निरंतर जीवंत आत्मनिरीक्षण की गुंजाइश को बनाये रखते हुए उस उत्साह को टिकाये रखना। बाहर से देखने पर दस साल का समय कोई बहुत बड़ा समय नहीं होता है। भीतर से देखा जाये तो, दस साल तक लगातार सार्थकता की ओर बढ़ते रहने के संकल्प को बचाये रखना कम बड़ी बात नहीं होती है। खासकर आज के समय में जब तेजी से जीवन संदर्भों में अनपेक्षित बदलाव अध्यारोपित हो रहे हैं। कहना न होगा कि इन बदलावों के साथ ही सामाजिक एवं वैयक्तिक जीवन-आकांक्षाओं की प्राथमिकताओं और प्रतिबद्धताओं में भी बदलाव तेजी से घटित हो जाते हैं। वह समय बहुत ही चुनौतीपूर्ण हुआ करता है जिस समय में हवा की विभिन्न लहरें न सिर्फ अपनी तयशुदा दिशा में बहा ले जाने के लिए सक्रिय रहती हैं बल्कि प्रतिरोध या किसी भी प्रतिविचार को निर्ममतापूर्वक छिन्न-भिन्न कर देने की क्रूरता पर भी आमादा रहती हैं। हमारा समय ऐसा ही है। इन दस वर्षों में किसी भी रूप में हिंदी मेला की गतिविधयों के साक्षी रहे लोगों के लिए पीछे मुड़कर देखना दिलचस्प और जरूरी है। हिंदी मेला को नहीं जाननेवालों तक इसकी जानकारी पहुँचाने की कोशिश का भी यह तकाजा है कि निश्च्छल आत्मावलोकन किया जाये ओर हिंदी मेला के विकासमान पाठ के संदेश को बार-बार पढ़ा जाये।
दस साल पहले जब हिंदी मेला प्रारंभ हुआ तो इसके पीछे क्या कारण थे क्या थीं इसकी तात्कालिक और दीर्घकालिक प्रेरणाएँ? क्या इसके भीतर किसी आंदोलन के बीज रहे हैं ? यह अपने मिजाज में आंदोलनधर्मी है या यह सिर्फ सालाना आलोड़न है ? क्या है इसकी ताकत और क्या है इसकी सार्थकता? मुड़कर देखने पर इस तरह के सवाल सहज ही उठते हैं। ऐसे सवालों पर बार-बार गौर किये जाने की जरूरत है। पहले हिंदी मेला का आयोजन 1995 की फरवरी में हुआ था। विस्तार में नहीं जाते हुए भी, यह याद रखने की जरूरत है कि 1984 में इिंदिरा गाँधी की हत्या के बाद प्रचंड बहुमत से सत्ता में आयी काँग्रेस के युवा नेता और भारत जैसे बहुआयामी देश के प्रधानमंत्री राजीव गाँधी की आँख में इक्कीसवीं सदी का सपना था। इस सपने में शुभ था तो अशुभ भी था, समझदारी थी तो थोड़ी-सी नादानी भी थी। सपनों के अंतरिक्ष के विघटित होने पर सपनों की धरती भी सिकुड़ने लगती है। मतलब यह कि बड़े वैश्विक सपनों के घायल होने से सामाजिक जीवन के बहुत सारे छोटे-छोटे सपनों का दम स्वत: घुटने लगता है। जिस समय राजनीतिक मुहावरा के रूप में इक्कीसवीं सदी का सपना भारत में उभर रहा था उसी समय बीसवीं सदी में देखा गया मानवीय इतिहास का सबसे बड़ा सपना घायल जटायु की तरह आहत होकर समता की सीता के अपहरण का दृश्य दखने की त्रासदी से गुजर रहा था। पाश जैसे कवि  इस त्रासदी की रचनात्मक पीड़ा की अभिव्यक्ति करते हुए रेखांकित कर रहे थे कि सबसे खतरनाक होता है सपनों का मर जाना। नागार्जुन को याद करें तो, चंदू को सपना देखने की बात बताकर पुलकित होने का समय हमारे हाथ से छूट रहा था। भारत में इक्कीसवीं सदी का सपना एक ऐसे समय में आकार पा रहा था जब दुनिया को एक ध्रुवीय बनाने की साम्राज्यवादी आकांक्षाएँ अपने को उन्नत तकनीक से जोड़कर सपनों के सौदागर के रूप में क्षितिज पर दाँत गड़ाने लगी थी। इक्कीसवीं सदी के सपने में अंतर्निहित शुभ-अशुभ एवं नादानी-समझदारी का गहरा ताल्लुक सपनों के सौदागरों से भी है। बहुत जल्दी ही मिस्टार क्लीन के रूप में प्रचारित इक्कीसवीं सदी के सपने के राजनीतिक मुहावरे का भारतीय नायक, राजीव गाँधी, का चेहरा भ्रष्टाचार के आरोपों से कुत्सित होता चला गया। भ्रष्टाचार की कुत्सा को धार्मिक मामलों के मंत्र-जल से धोने की कुचेष्टा की झलक शाहबानो प्रकरण और अयोध्या-विवाद के ताला खोले जाने में देखने को मिलती है। विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार को ताकत अयोध्या-विवाद के एक पक्ष से मिल रही थी और चुनौती भी। जिससे ताकत मिलती है उसी से चुनौती भी मिले तो सफलतापूर्वक उसका मुकाबला कोई कर नहीं सकता है। विश्वनाथ प्रतताप सिंह की सरकार इस बात को समझ रही थी। विश्वनाथ प्रतताप सिंह की सरकार ने अपनी ताकत के नये स्रोत के रूप में सामाजिक न्याय के सपनों और संभावनाओं से जुड़ने की भरपूर कोशिश की। इस कोशिश में सामाजिक न्याय के सपनों और संभावनाओं की राजनीतिक ऊर्जा तो बहुत तैयार हुई लेकिन विश्वनाथ प्रतताप सिंह की सरकार को इससे पर्याप्त कुमक नहीं मिली और उनकी सरकार की जान निकल गई। फिर से सत्ता हासिल करनेवाली काँग्रेसने नरसिंह राव के नेतृत्व में नई आर्थिक नीति को अपनाने के साथ ही भारतीय हितों के अधिकांश को साम्राज्यवादी आकांक्षाओं से नत्थी कर दिया। राज्य के कल्याणकारी मिजाज को विकास के सबसे बड़े बाधक के रूप में प्रचारित किया गया। यह इतिहास की विडंबना ही है कि सामाजिक न्याय के सपनों और संभावनाओं की राजनीतिक ऊर्जा से जुड़कर सत्ता में आये लोागें के लिए सामाजिक न्याय और राज्य के कल्याणकर उपाय सबसे बड़ा बोझ बन गया। सतह पर सरकार के रुझान में कुछ महीनों में ही पूरब-पश्चिम का यह दिशांतर हो गया ! इस नत्थीकरण और दिशांतरण के सामाजिक-सांस्कृतिक दुष्परिणाम जो पहले आशंकाओं के रूप में थे, धीरे-धीरे घटना में बदलने लगे। नतीजा यह कि आधुनिकता और प्रगतिशीलता की असमाप्य परियोजनाएँ प्राणांतक स्थगन के दौर में पहुँच गई। सांस्कृतिक पुनिर्माण के सपने के सामने नई चेतना और नई खुराक जुटाने की विकराल चुनौतियाँ खड़ी हुई। यह बहुत बड़ी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक चुनौती है। सांस्कृतिक पुनर्निर्माण की इस चुनौती को अपने ढंग और अपने स्तर पर समझनेवाले लोगों के लिए हिंदी मेला जैसे आयोजन से वह खिड़की खुलती नजर आई जिससे प्राणवायु और रौशनी के साथ ही नई चेतना और नई खुराक के आमद होने की भी गुंजाइश बन सकती थी। इस गुंजाइश को हासिल करने धुँधली-सी आशारेखा को पकड़ कर चलने का साहस हिंदी मेला पिछले दस साल से लगातार करता आया है।

1995 में पहले हिंदी मेला का आयोजन हुआ। तब से कई साथी आये। कुछ दूर तक साथ दिया। कुछ देर तक साथ रहे। जो थोड़ी दूर तक भी साथ चले, जो थोड़ी देर तक भी साथ रहे, हिंदी मेला उन सबका शुक्रगुजार है। हिंदी मेला एक युवा स्वप्न है। इसीलिए, युवा शक्ति और प्रतिभा हमेशा इसके साथ रही है। यही इसकी ताकत भी है और सार्थकता भी है। यह कहना मुनासिब नहीं है कि हिंदी मेला ने अपने प्रयोजन को सिद्ध कर लिया है। यह भी नहीं है कि इसकी उपलब्धियाँ महान हैं।सच है कि हिंदी मेला सिद्ध मनोरथ नहीं है। न ही इसमें इतिसिद्धम का गरूर है। तब, इतनी-सी बात जरूर है कि सपनों की आसन्न मृत्यु की घोषणाओं के कठिन समय में भी सप्ताह व्यापी इस हिंदी मेला ने सपनों के सांस्कृतिक बिखराव को रोकने की भरपूर और ईमानदार कोशिश की है। एक वैकल्पिक संस्कृति की संभावनाओं को तराशने की जद्दोजहद को हिंदी मेला ने समझा है। ऐसी वैकल्पिक संस्कृति जिसमें इतना स्पेस जरूर हो जो यह समझ सके कि विचार और प्रतिविचार दोनों की तरंग को सम्हालनेवाली हवा एक ही है और उसे हर प्रकार के प्रदूषण से बचाने की जरूरत को अकेले कोई पूरा नहीं कर सकता है। हिंदी मेला में `हिंदी' सिर्फ एक भाषा को प्रतिध्वनित नहीं करती है। यहाँ `हिंदी' का अर्थ वैसा है जैसा `हिंदी हैं हम, वतन है हिंदोस्ताँ हमारा' में है। गुम होते वतन को पहचानने और बचाने के लिए दुनिया के मेले के अंदर एक और मेला रचता है यह हिंदी मेला। हिंदी मेला भाषाओं को संस्कृतियों और सामाजिकताओं की सरहद नहीं मानता बल्कि  संस्कृति और सामाजिकताओं की सरहदों के पार जाने के हौसला का आधार मानता है। हिंदी मेला की आँखों को तलाश है दूसरी जगहों में किसी भी नाम और रूप से होनेवाले ऐसे ही मेले की जिसमें वैकल्पिक संस्कृति के पुननिर्माण रचाव का ऐसा ही स्वतंत्र संकल्प हो। आशा हो। हिंदी मेला एक आयोजन न रह जाए, बल्कि सिलसिला बन सके। पुनर्निर्माण और विकल्प आज के दो सबसे महत्त्वपूर्ण अर्थ-संकल्पनाओंवाले शब्द हैं। हिंदी मेला के भी बीज शब्द हैं। यह सालाना आलोड़न, जलसा या वैसा ही कुछ नहीं है। एक हिलोर है। यह उस अर्थ में आंदोलन नहीं है जिस अर्थ में आंदोलन की ताकत सामाजिक बेचैनी और राजनीतिक सत्ता की आकांक्षा हुआ करती है। इसकी प्रकृत गति का स्रोत तीब्र सामाजिक-बेचैनी में न होकर अपराजेय सामाजिक आशा में है। आशा यह कि विषमता की कठोर जमीन पर कभी पैर नहीं रखनेवाली समता की सीता का अपहरण कर विषमताओं के अ-शोकवन में डाल देनेवाले एक दिन ध्वस्त होंगे। आशा यह कि समता की सीता का वरण करनेवाले भी इस या उस बहाने विषमताओं के बीहड़ में उसके निष्कासन का षड़यंत्र नहीं रचेंगे।  हिंदी मेला इस सांस्कृतिक खतरे के सदर्भों को समझता है कि सीता को दुख अपहरण करनेवाले से ही नहीं वरण करनेवाले से भी मिलताहै। हिंदी मेला जानता है कि वह दुख के इस दुर्दम्य दोहराव को अपने अकेले के दम पर रोक नहीं सकता है। हिंदी मेला तो बस, सीता की गहन आशा को करुणा से सींचनेवाले बाल्मीकियों के सपनों और संभावनाओं का एक सिलसिला है। हिंदी मेला  के सातों दिन चलनेवाले विभिन्न कार्यक्रमों की अंत:सलिला भी यही सिलसिला है। हिंदी मेला को हिंदी समाज का दुलार चाहिए। मिल पायेगा? इसका जवाब बार-बार ढूढ़ना होगा।

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सादर, प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan