बसे पहले मैं रवींद्र भारती विश्वविद्यालय को इतने मौजूँ विषय पर विचार गोष्ठी का आयोजन करने के लिए धन्यवाद देना चाहता हूँ साथ ही इस महत्त्वपूर्ण विचार गोष्ठी में दो शब्द रखने का मौका देने के लिए मैं विश्वविद्यालये प्रति आभार प्रकट करना चाहता हूँ। गुरूदेव रवींद्रनाथ ठाकुर के नाम पर स्थापित रवींद्र भारती विश्वविद्यालय को इस विषय पर विचार गोष्ठी आयोजन का अपना अतिरिक्त महत्व है। अकारण नहीं है कि 14 मई 1941 को अपने जन्मदिन के अवसर पर गुरूदेव रवींद्रनाथ ठाकुर ने जो अंतिम संदेश दिया उसका शीर्षक ‘सभ्यता का संकट’ है और हाल के दिनों में पी. सैमुअल हट्टिंग्टन की जिस किताब की वैश्विक स्तर पर गंभीर चर्चा हुई उसका शीर्षक भी 'Clashes of Civilization' अर्थात, सभ्यता का संघात है।
यह विषय महत्त्वपूर्ण क्यों है ? यह महत्त्वपूर्ण इसलिए है कि इसमें सभ्यता के प्रवाह में उपस्थित नये बाँक पर विचार किये जाने के अवसर का संकेत है। भारतीय वाङमय में सभ्यता की चर्चा तो बहुत बार हुई है लेकिन संस्कृति शब्द का उल्लेख अपेक्षाकृत कम अवसरों पर ही हुआ है। इसका एक कारण तो यह है कि सभ्यता का निर्माण किया जाता है लेकिन संस्कृति का विकास होता है। मनुष्य सभ्यता की रूपरेखा को बहुत हद तक तय या नियंत्रित कर सकता है। सभ्यता के अनुसार संस्कृति का विकास स्वतः होता रहता है, संस्कृति ती विकासमान प्रक्रिया तय और नियंत्रित करना संभव नहीं होता है। बहुत विस्तार से सभ्यता और संस्कृति के अंतस्संबंधों या समानता - असमानता पर चर्चा का यहाँ अवसर नहीं है फिर भी इतना संकेत कर देना जरूरी है कि सभ्यता का संबंध जीवनयापन की पद्धतियों से होता है जबकि संस्कृति संपूर्ण जीवनशैली है। स्वभावतः जीवनशैली को समझने के लिए जीवनयापन की पद्धतियों को समझना जरूरी है। कहना न होगा कि शिकार युग, कृषि युग, औद्योगिक युग और अब उपस्थित तकनीक युग में जीवनयापन की पद्धतियों में कुछ मूलभूत अंतर है और इस अंतर से संस्कृति की आंतरिक संरचना में अंतर का आना इसकी तार्किक परिणति है। उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण के इस दौर में जीवनयापन की परिस्थितियों और पद्धतियों में भारी अंतर आया है। सृजनशील समाज में आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है, उपभोक्ता समाज में आविष्कार आवश्यकता का पिता बनकर उपस्थित होता है। सृजनशील समाज और उपभोक्ता समाज के अंतर पर संक्षेप में ही सही पर थोड़ा ठहर कर विचार कर लेना जरूरी है। सृजनशील समाज आजीविका प्रधान होता है। उपभोक्ता समाज रोजगार प्रधान। आजीविका और रोजगार में अंतर यह होता है कि आजीविकामूलक श्रम में पैसा का जुड़ाव अनिवार्य नहीं होता है जबकि रोजगारमूलक श्रम में पैसा का जुड़ाव अनिवार्य होता है। जाहिर है आजीविकामूलक श्रम अधिक सृजनशील होता है जबकि रोजगारमूलक श्रम का शील पैसा से परिभाषित होता है। जल-जमीन-जंगल और अंततः जीवन से बेदखल होती जा रही बहुत बड़ी आबादी आजीविका से तो वंचित हो गई लेकिन रोजगार के अवसरों से जुड़ नहीं पाई है। भूख के भयानक भँवर में फँसी सभ्यता में किस प्रकार की संस्कृति विकसित हो सकती है, इसका अनुमान बहुत कठिन नहीं है। अपने विख्यात प्रबंध ‘सभ्यता का संकट’ में गुरूदेव रवींद्रनाथ ठाकुर ने ध्यान दिलाया कि ‘सभ्यता का जो रूप हमारे देश में प्रचलित था उसे मनु ने ‘सदाचार’ कहा’[1]। इसके साथ ही गरूदेव ने 'भारत में राष्ट्रीयता' शीर्षक अपने प्रबंध में यह भी ध्यान दिलाया कि ‘जो लालच ताकतवर राष्ट्रों के लिए घातक है, वह कमजोर के लिए उससे भी बड़ा खतरा है। भारतीय जीवनधारा में मैं यह स्थिति नहीं देखना चाहता, भले ही यह अमरता के देवता का ही वरदान क्यों न हो। हमारे जीवन को बाहर से सादा फिर भी भीतर से उच्च रहने दो। हमारी सभ्यता सामाजिक सहयोग के अपने उसूलों पर ही रहे न कि आर्थिक शोषण और संघर्ष के रास्ते पर बढ़े। खून चूसनेवाले अर्थिक राक्षसों के बीच रहते हुए ऐसा कैसे हो सकेगा, इस पर प्राच्य राष्ट्रों के वे चिंतक सोचें, जो मानवीय आत्मा में अभी भी विश्वास रखते हैं। यह कायरता और आलस्य का ही चिह्न है कि हम उन परिस्थितियों को स्वीकार कर लें जो ऐसे लोगों के द्वारा ही निर्मित हैं, जिनके आदर्श हम से अलग हैं। हमें सक्रिय रूप से कोशिश करनी चाहिए कि हम ऐसी शक्ति अर्जित कर सकें, जो हमारे इतिहास का सच्चा मार्गदर्शन करे।’[2]
‘उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो चुका होगा कि मैं कोई अर्थशास्त्री नहीं हूँ। फिर भी मैं ‘माँग’ और ‘आपूर्ति’ का नियम स्वीकार करता हूँ। यह भी स्वीकार करता हूँ कि इंसान सदा उससे ज्यादा पाना चाहता है, जितना कि उसके लिए अच्छा है। बावजूद इसके मैं इस बात को रेखांकित करना चाहता हूँ कि मानवता में सामंजस्य की पूर्णता होती है, जहाँ गरीबी उसके मूल्य नहीं छीन पाती, जहाँ हार भी उसे जीत की ओर ले जाती है, मौत भी अमरता देती है और क्षतिपूर्ति के रूप में शाश्वत न्याय जो सबसे छोटी है, उन्हें अपने अपमान को सुनहरी जीत में बदलने का मौका देता है।’[3] महात्मा गाँधी ने भी अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'हिंद स्वराज' में लगभग चेतावनी के स्वर में कहा था कि प्रकृति हमारी जरूरत अर्थात Need को पूरा कर सकती है लेकिन लालच अर्थात Greed को नहीं।
‘बाजारवाद और बदलती संस्कृति’ पर विचार करते समय संस्कृति संबंधी भारतीय चिंतनधारा के इस पहलू को ध्यान में रखना होगा। कभी-कभार हिंदी में लिखनेवाले अर्थशास्त्रियों के विचार में ‘बाजारवाद’ नामका कोई वाद है ही नहीं।
[1] रवींद्रनाथ ठाकुर : सभ्यता का संकट -1941 : अनुवाद भक्ति पटेल:सामाजिक क्रांति के दस्तावेज, सं, डॉ.शंभुनाथ:वाणी प्रकाशन-2004
[2] रवींद्रनाथ ठाकुर : भारत में राष्ट्रीयता -1917 : अनुवाद भक्ति पटेल:सामाजिक क्रांति के दस्तावेज, सं, डॉ.शंभुनाथ:वाणी प्रकाशन-2004
[3] रवींद्रनाथ ठाकुर : भारत में राष्ट्रीयता -1917 : अनुवाद भक्ति पटेल:सामाजिक क्रांति के दस्तावेज, सं, डॉ.शंभुनाथ:वाणी प्रकाशन-2004
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सादर, प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan