संस्कृति मिलने
से बनती है। जीवन साथ चलने से चलता है। मिलकर साथ चलने से जीवन सांस्कृतिक बनता है।
मनुष्य के बारे में जो भी अच्छी बात कही जा सकती है उन सब का संबंध मिलकर साथ चलने
से है। मनुष्य जीवन की सारी अच्छाइयाँ साथ मिलकर चलने से बनी है। इस बात को मनुष्य
ने सभ्यता के प्रथम चरण में ही पहचान लिया था। सारी नदियाँ अपने उद्गम में अकेली और
क्षीण होती हैं। आगे बढ़ती है, अन्य नदियों
से मिलती है। इस मिलाप से उसका पाट बड़ा होता है। नदी सागर से मिलती है। यह नदी का
अंत नहीं उसका सागर हो जाना है। जिस नदी को जितनी नदियों का साथ मिलता है उस नदी की
उतनी ही गतिमयता बनी रहती है। जिन नदियों में जितनी गतिमयता होती है,
उनमें
सागर बनने की संभावनाएँ भी उतनी ही होती है। सागर बनने की संभावना ही नहीं जीवन को
सर्वाधिक सेंच भी उन्हीं से मिलता है। आज नदियों को जोड़ने के महत्त्व को हम नये सिरे
से समझ रहे हैं। मनुष्य को जोड़ने के महत्त्व को भी नये सिरे से समझना होगा। सभ्यता
की नदियों को परस्पर जोड़ना क्या कम जरूरी है?
जो
चल सकते हैं,
उन्हें
ही साथी मिलते हैं। ठहरे हुए को साथी नहीं मिलते। जिन्हें साथी मिलते हैं,
वे
ही गतिशील बने रह पाते हैं। जो गतिशील होते हैं उनका ही व्यक्तित्व व्यापक बनता है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल कह गये हैं कि ज्ञान-प्रसार के अंदर ही भाव-प्रसार होता है।
समझना होगा कि आत्म-प्रसार के अंदर ही संवेदनात्मक ज्ञान का प्रसार संभव होता है। आत्म-संकुचन
से न तो संवेदनात्मक-ज्ञान का प्रसार होता है और न भाव-प्रसार। आदमी सारे दुख उठाता
है,
पल-दो-पल
के आत्म-सुख के लिए। आत्म-प्रसार ही आत्म-सुख का आधार बनता है। आत्म-संकुचन में आत्म-सुख
नहीं आत्म-छल होता है। छल की आयु अज्ञान जितनी होती है। मनुष्य अज्ञान को दूर करता
रहता है। अज्ञान के दूर होने से छल छँटता चलता है। यह द्विदिश सत्य है। अर्थात, छल
के भी छँटने से अज्ञान दूर होता है। दिशा चाहे जो हो, मूल
बात यह है कि आत्म-छल के छँटे बिना आत्म-प्रसार नहीं होता है। आदमी नाना प्रकार के
कष्ट-जाल में उलझता ही चला जाता है। इस ब्यूह को भेद कर बाहर निकलना ही मुक्ति है।
इस ब्यूह से मनुष्य अकेले नहीं निकल सकता है। निकल सकता है तो साथ चलने से। मनुष्य
है,
तो
उसे साथी की जरूरत सदा रहती है। साथी हर किसी को चाहिए। इसीलिए मुक्तिबोध कहा करते
थे कि मुक्ति अकेले नहीं मिलती है। सभ्यता के दुख की आज की जैसी ही किसी उतप्त घड़ी
में मन के सूने आँगन में मेला का समाँ बँध गया होगा – साथी
की तलाश में,
चुपचाप।
आज
के जीवन की विडंबना है कि आदमी भीड़ में अकेलेपन के तनाव और अकेले में भीड़ के दबाव
को झेलते रहता है। इस तनाव और दबाव के बीच कचकते हुए विनोदकुमार शुक्ल कहते हैं कि
हम साथी को नहीं जानते, साथ को जानते
हैं। साथी को जाने बिना साथ को जानने का वहम कितनी देर तक टिका रह सकता है !
चाहे
जैसे भी हो,
साथ
को जानने के लिए साथी को जानना बहुत जरूरी होता है। साथ चलने के लिए साथी को जानने
का संकट कोई हमारे ही दुस्समय में प्रकट नहीं हुआ है। सभ्यता की शुरुआत से यह संकट
मनुष्य के साथ बना हुआ है। तभी तो ऋगवेद की अंतिम ऋचा में सभ्यता विकास के सार-सूत्र
को उपलब्ध कराते हुए `संगच्छध्वं सवदध्वं '
अर्थात
मिलकर चलो की सलाह दी गई। चलने की बड़ी चाह की
पीड़ा के साथ संभावित साथी की तलाश में रवींद्रनाथ ठाकुर ने आत्म-संबोधित करते हुए
रुद्ध कंठ से पुकार लगायी होगी कि जोदि तोमार डाक सुने केउ न आशे,
तबे
तुमि एकला चलो,
एकला
चोलो रे। अपने संकीर्ण होने का पहला ही लक्षण है, दूसरे
को संकीर्ण मानना। आज के `हिंदू जागरण'
जैसे
कार्यक्रमों ने हमें इतना संकीर्ण बना दिया है कि कभी-कभी नवगोपाल मित्र और रवींद्रनाथ
ठाकुर के परिवार का `हिंदू मेला' भी
संकीर्ण लगने लगता है। हम उनकी पीड़ा का अनुमान भी नहीं लगा पा रहे हैं। साथ चलने के
लिए साथी की चाह में ही रवींद्रनाथ ठाकुर ने विषमताग्रस्त हिंदू समाज की विषमता को
दूर करने के लिए `हिंदू मेला' के
आयोजन की बात सोची होगी। आज के तुमुल कोलाहल से उत्सर्जित हलाहल के दुष्प्रभाव से आक्रांत
हम ऐसी किसी पुकार को ठीक से कहाँ सुन पा रहे हैं, साथी।
उपस्थित महाभारत को अकेले-अकेले जीत लेने के प्रति जितने आश्वस्त हम होते जा रहे हैं,
उतना
आश्वस्त इसके पहले शायद ही कोई रहा हो।
आज
से आठ साल पहले साथ चलनेवाले साथियों की ऐसी ही तलाश में `समकालीन
सृजन'
ने
`सांस्कृतिक
पुनर्निर्माण मिशन' की स्थापना कर कोलकाता में `हिंदी
मेला'
की
शुरुआत की थी। बोली समाज में बँटे और विखंडित हिंदी समाज को परस्पर निकट लाने तथा गैर
हिंदी भाषी प्रदेश में रहते हुए हिंदी समाज और अन्य भारतीय भाषाओं के बीच एकता के शिथिल
होते संबंधसूत्र की जीवनी शक्ति को बनाये रखने के उद्देश्य से मातृभाषा को लोकप्रिय
बनाने के संकल्प के साथ शुरू हुआ था यह `हिंदी मेला'। छोटे
स्तर पर प्रारंभ हुआ हिंदी मेला अब बड़ा हो गया है। लेकिन आज भी यह इतना बड़ा कहाँ
हो पाया है कि किसी भी प्रेरणा को सही संदर्भ और जरूरी उत्साह के साथ पकड़ पाने की
कमतर क्षमतावाले विशाल हिंदी समाज में इसे सम्मानपूर्ण स्वीकृति प्राप्त हो। यह काम
सीमित स्थान और संख्यावाले समूह के लोगों के एकक उद्यम से संभव भी नहीं है। एक दीया
से अमानिशा को जगमग कर देनेवाली दीपमाला नहीं सजती है। दीपमालाओं के मन में सूरज की
अनुपस्थिति का मलाल नहीं होता है। आज पूरी दुनिया की सामाजिकताओं पर छाया संकट उनकी
भाषाओं के अनिवार्य लोप के रूप में प्रकट हो रहा है। भाषाओं के बुझने से सामाजिकताओं
का घर-आँगन गहरे अंधकार में डूब रहा है। इस गहन अ्ंाधकार को दूर करने के प्रयासों को
दीपमाला के रूप में सजाकर संकट को उत्सव में बदलने के ये प्रयास तभी सार्थक हो सकते
हैं जब विभिन्न स्थानों पर ऐसी ही दीपमालाएँ सजाई जायें। न तेल की जरूरत है,
न
बाती की। जरूरत है तो बस, अँधेरे के खिलाफ
सुलगने के लगन की। दीया अँधेरे के खिलाफ जूझने की हसरत बनकर ही चमकता है। दीया निरर्थक
नहीं जलता है। ऐसे ही किसी प्रयास के दौरान साथी भी मिलते हैं। साथ भी मिलता है। मिलकर
चलने का हौसला भी मिलता है और भरोसा भी। कहते हैं अरुण कमल न चलें तो टूटेगा भरोसा
। इसलिए,
चलिए
साथी
– `आत्मदीप'
होने
के बुद्ध पथ पर
– थोड़ी
दूर ही सही,
पर
चलिए साथी। हिंदी मेला युवा प्रतिभाओं का उत्सव भी है, संघर्ष
भी। प्रेरणा भी है, प्राण भी। सुमन भी है,
सुरभि
भी। इस मेला को हम सब का स्नेह भी चाहिए, सम्मान भी।
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सादर, प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan