बुधवार, 27 अगस्त 2014

हे तात! बूढ़ों का रास्ता या रास्ते पर बूढ़े

हमारे समाज में बूढ़ों का सम्मान बढ़ रहा है। विघ्नसंतोषी और कुटिल लोग पड़ोसी के घर में बूढ़ों की स्थिति पर जुबान चलाने से खुद को रोक नहीं पाते हैं। तरह-बेतरह की टिप्पणी करते हैं। उनके इस तरह से प्रवक्तियाते रहने के रहस्य को जनता खूब जानती है। ऐसे कुटिल-खल लोगों को न तो भारतीय संस्कृति का रत्ती भर ज्ञान होता है और न ही भारतीय संस्कृति पर छदाम भर भरोसा! संस्कृति विमूढ़, ये इतना भी नहीं जानते कि भारतीय संस्कृति की पावन परंपरा में बूढ़ों, बच्चों और स्त्रियों से किया जानेवाला अच्छा-बुरा सलूक घरेलू और निजी मामला होता है। ऐसे घरेलू और निजी मामलों में बाहरी लोगों को बोलने का कोई शिष्ट अधिकार नहीं होता है। परिवार के लोग कितना सम्मान देते हैं, ये बात परिवार के लोग ही जानते हैं। दूसरे क्या जानें कि बूढ़ों को सम्हालना कितना कठिन काम है! 

सच, झूठ का पता नहीं, पर महाभारत में तो ऐसा ही देखा गया है और अभी महाभारत का समय बीत नहीं गया है। रास्ता बताने में माहिर उस्ताद विदूर को अपना रास्ता नापना पड़ गया। भीष्म जैसे योद्धा को अपने अंतिम समय कितने आराम से शरशैय्या पर लिटाया गया था और कितनी विनम्रता से चारो ओर परिजन खड़े थे। शरशैय्या पर लेटे पितामह को जब प्यास लगी तो पानी देने का कितना उम्दा और सम्मानपूर्ण तकनीक अपनाया गया। पार्थ ने खींचा वाण और ठोका धरती की छाती पर। पानी निकला और सीधे पितामह के मुँह में ▬▬ वाणगंगा का नाम नहीं सुना है क्या! इससे बढ़कर बूढ़ों के सम्मान की संस्कृति कहाँ है, भाई! आपको याद है न, महाभारत के कठिन काल में नरो वा कुंजरो का शोर हुआ। याद है न, उस शोर के बाद अपने शिष्य के हित को सुनिश्चित करने के लिए एकलव्य का अंगूठा काटनेवाले गुरु का जो सांस्कृतिक वाण-ट्रीटमेंट उसी शिष्य ने किया! यहाँ तो फिलहाल, वाण-ट्रीटमेंट नहीं वाणी-ट्रीटमेंट ही हो रहा है, इससे बड़ा सांस्कृतिक दक्षता और संयम का प्रमाण और क्या हो सकता है! उदाहरण कई हैं। मगर बात बढ़ाने से क्या फायदा! कोई न सिखाये कि बूढ़ों का सम्मान कैसे किया जाता है।

इतना छटपट क्यों भाई! हाँ, कठिन है और बहुत ही दायित्वपूर्ण भी, उनको रास्ता दिखाना जिन्हें पहले से अपना रास्ता पता है। यह तो सांस्कृतिक दक्षता है कि सम्मानपूर्वक रास्ता दिखाने का दायित्व देकर, असल में, उनको रास्ता दिखा दिया जाता रहा है। बूढ़ों को सम्मान देना बहुत ही जबर्दस्त सांस्कृतिक दक्षता का काम है। इस सांस्कृतिक दक्षता के अभाव में क्या होता है? याद है कि नहीं कमलापति त्रिपाठी का नाम और काम! कोई कुसंस्कारी होता तो वही करता जो खाता न बही, जो चाचा केसरी कहे वही सही के किंवदंती पुरुष के साथ हुआ। बूढ़ों से व्यवहार का उसी तरह का निष्करुण दृश्य उपस्थित कर देता। अब जॉर्ज और जनेश्वर मिश्र का प्रसंग तो रहने ही दिया जाये! अहा, सांस्कृतिक दक्षता के होने और न होने का अंतर अब भी स्पष्ट नहीं हो रहा हो, तो क्या कहा जाये! 

बूढ़ों का क्या! घर हो या बाहर किसी मामले में अपनाई गई किसी भी तरह की निर्णय प्रक्रिया से तो वे अंततः बाहर ही किये गये होते हैं न! याद है न कि प्रेमचंद ने क्या कहा था ▬▬ बुढ़ापा बहुधा बचपन का पुनरागमन हुआ करता है। अरे प्रेमचंद की बूढ़ी काकी! और भीष्म साहनी की याद है न, जिस दिन मिस्टर शामनाथ के घर चीफ की दावत थी उस दिन जो शामनाथ ने के सामने सहसा एक अड़चन खड़ी हो गई, माँ का क्या होगा? इस अड़चन को कैसे दूर किया गया!

माफ कीजिये, यह तो सांस्कृतिक सवाल है ▬▬ संस्कृति के प्रति आदर रखनेवाले इसका मर्म समझते हैं। कैसी स्थिति है, जिनका अपना ही रास्ता बंद हो गया उन पर रास्ता दिखाने का भार आ पड़ा है! प्रदर्शक का अर्थ दिखानेवाला (दिखावाकरनेवाला भी) होता है▬▬ पथ प्रदर्शक। वैसे जहां तक दर्शक का सवाल है तो उसका अर्थ देखनेवाला है, न कि दिखानेवाला। उस हिसाब से मार्ग दर्शक का अर्थ हुआ, मार्ग देखनेवाला! अब किस का रास्ता देखें, सो अपना रास्ता देखने का ही विकल्प हाथ में बचा है!  संस्कृति को न जाननेवाले दर्शक-प्रदर्शक का अंतर तो जानते नहीं ऊपर से इस पर राजनीति करते हैं। हुँह, चलनी दूसे सूप को! इसे सांस्कृतिक दक्षता के साथ देखना, समझना चाहिए.. क्या कहते हैं!

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सादर, प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan