बात पुराने दिनों की है। हमारे इलाके में आज भी किसी न किसी संदर्भ में, बात रसाने के लिए लोग कहते हैं, यावत वरतं, ताबत बरतं! यानी जब तक चले, तब तक चले! उस जमाने के राजा भी आज की ही तरह के होते थे इस मामले में। राजदरबार में एक आदमी रोजी की तलाश में पहुँचा। राजा ने कहा कि क्या कर सकते हो...? पढ़े लिखे हो! पढ़ा सकते हो...! शिक्षा का आलोक फैला सकते हो! जो खुद पढ़ा वही दूसरों को पढ़ाना शिक्षा का आलोक है, तो ठीक है। बरतनवाँ गाँव में जाकर यह काम करो। तुम्हारे परिवार तक राजकर्मचारी दक्षिणा पहुँचा दिया करेंगे। कुछ दिन के बाद फिर इसी तरह एक और विद्वान पहुँचे। राजा ने उन्हं भी उन्हीं शर्त्तों पर बरतनवाँ भेज दिया। ये दूसरे विद्वान जब बरतनवाँ पाठशाला में पहुँचे तो पाया कि पहले से सक्रिय शिक्षा-आलोकी गुरू जी का बहुत दबदबा है और छात्रगण सूत्राभ्यास में लगे हैं-- सूत्र--- 'बरतते, बरततौ, बरततं'! एक दिन दो दिन, तीन दिन रोज यही और इतना ही इसी सूत्र का छात्रगण झूलाभ्यास करते रहे। यह देखकर उन से नहीं रहा गया। शिकायत होने पर रोजी छिन जाने का खतरा सो आखिर उन्होंने पूर्व-सक्रिय विद्वान से पूछ ही लिया कि 'इस तरह जो, बरतं तो कितना दिन बरतं।' पूर्व-सक्रिय विद्वान ने छूटते ही जवाब दिया, 'जाबत वरतं, ताबत बरतं'। आज की भाषा में कहा जाये तो जबतक चलेगा, तब तक चलेगा। इस तरह पाँच साल बीतने को आया। अब राजा के मन में आया कि बरतनवाँ जाकर शिक्षा के आलोक का अवलोकन किया जाये। सो मंत्री-संतरी, लाम-काफ, लाव-लश्कर और राज पंडित के साथ महराज चल पड़े बरतनवाँ की ओर। पूरा गाँव उत्साह में था। प्रधानाचार्य बेखौफ थे। आचार्य के करुणार्द्र चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थी कि अब पोल खुलने ही वाली है और उसके बाद जो होगा, वह भयानक ही हो सकता है। राजा का अवलोकन हुआ। राजा ने पाया कि बरतनवाँ के लोगों से जो भी पूछो, जवाब एक ही होता है---- 'बरतते, बरततौ, बरततं'! राजा ने राजपंडित से इसका मतलब और रहस्य बताने को कहा। राजपंडित ने रहस्य खोला ---राजन यहाँ शिक्षा का आलोक फैल चुका है। पूरा गाँव शिक्षा का वशवर्त्ती है। और इनके कहने का मतलब है, राजा है, जब तक राज है, राजा रहेगा। चकित राजा को शिक्षा के आलोक का दर्शन हो चुका था। राजा ने राजपंडित तथा प्रधानाचार्य को धन-धान्य, रत्नादि से आच्छादित कर दिया, आचार्य भी पुरस्कृत। पूरा बरतनवाँ प्रसन्न!
अब राजा जा चुका था। बरतनवाँ भी अपने ढर्रे पर लौट आया था। समय-सुयोग देखकर दूसरे विद्वान आचार्य ने हठपूर्वक पूर्व-सक्रिय विद्वान प्रधानाचार्य का पादग्रहण कर लिया, हाँ वही पैर पकड़ लिया – 'अपराध क्षमा हो आप हमें इस राजकृपा का रहस्य बतायें कि कैसे इतना बड़ा सम्मान मिला।' प्रधानाचार्य ने कहा -- 'रे मूढ़ाचार्य यह नहीं जानता कि एक पंडित के कहे का अर्थ दूसरा पंडित ही निकालता है, और वह कभी ऐसा अर्थ नहीं निकालता है जिससे पेशेदारी का रहस्य ... वो क्या बोलते हैं न ट्रेड सिक्रेट... खुले और राजा मारमुखी हो जाये! इसे समझो! जब तक यह समझदारी है, अर्थात शिक्षा है तब तक, जैसे चलता है, वैसे ही चलता रहेगा।' यही है, व्यवस्था का मूलमंत्र 'बरतते, बरततौ, बरततं'। जो इस मूलमंत्र को नहीं जानते उन्हें बहुत कष्ट होता है, तरह-तरह की व्याधि व्यापती है। इससे मुक्ति का एक ही रास्ता है ▬▬ 'यावत वरतं, ताबत बरतं' के सदज्ञान पर भरोसा करना!
हमारे गाँव में इस सदज्ञान पर आज भी भरोसा है, यह आज भी चलता है। राजधानी में..! पता नहीं! राजधानी के कर्णधारी लोग ही कुछ कहें तो कहें...! मेरी ओर से तो छोटा मुँह, बड़ी बात हो जायेगी..
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सादर, प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan